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Tuesday 26 April 2011

वक़्त ने ललकारा है फिर कलम धरो ..

वक़्त ने ललकारा है फिर कलम धरो
एक सपना था 
आया  अन्यास 

वो प्रभु का प्रताप था 
उसने समझा यथार्थ  था 

पर वो  कल का उसके 
परमार्थ था 

भटका था कुछ दूर 
राह में अनजानी 
कुछ तस्वीर थी 

बेगानों की महफ़िल 
या दिलवालों की भीड़ थी 

जीवन पथ में
साक्षी बनाया उस स्वप्न 
के अंजानो को 

जीवनसाथी है कलम 
उस सत्य के प्रमाणों को  

भीड़ से एक आवाज़ मिली 
कुछ शब्द मिले ,एक आवाज़ मिली 

चला अकेला ही था  वो 
वो कलम का एक सिपाही था 

प्रेमचंद या हो दिनकर 
वो शब्द-क्रांति का एक प्रहरी था 

विपत्ति  आती है जब जब 
जीवन मद्धम हो जाता है 

कलमकार शब्दों से लड़ता 
हर युद्ध जीतता जाता है 

सोये जनमानस को भी 
एक राह वही दिखलाता है 

जागृति लाता है 
और युग बदल जाता है 


ओर्विन्दो ,दिनकर ,सुब्रमण्यम के 
शब्दों ने बिगुल विप्लव की  बजायी  थी 

बिस्मिल   ने भी शब्दों से ही 
वर्तानियों    की   नींद    उडाई    थी 

वक़्त ने ललकारा है फिर  कलम धरो   
 नौजवानों   भ्रटाचार    से जूझ   पड़ो   

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