जगत के दावानल में
सर्प सम विपत्ति से डसे हुए
कुछ मरे हुए ,कुछ डरे हुए
ये मानवों के संतापो को हरते हैं
विषैले शब्द रक्त में
दिन प्रतिदिन
उनके धमनियों में बहते हैं
एक अमृत कलश है ये विष
व्याप्त मन मंदिर में उनके रहता है
करता है निस्तेज असत को
जब मंथन वो मन का करते हैं
नव जीवन देता है मानव को
जब सपने उसके क्षीण भिन्न होते हैं
यथार्थ के कटारों से
वो घायल परे जब होते हैं
सपेरा है काल्पनिक मन
वो शब्दों को वश में करता है
मरे हुए मानव मन का
संचार वो सपेरा करता है
निर्बलों के संतप्त मन का
वो विषैला रक्त ही सहारा होता है
अमृत रचता है उस विष से
कवि तारणहारा होता है
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