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Sunday 24 April 2011

एक शीशा दर्पण बनकर मानव को उसका चेहरा दिखता रहता है.....

एक  शीशा दर्पण बनकर  
मानव को उसका चेहरा दिखता रहता है
उसके हाव भाव से उसे परिचित करता रहता है

पर किसी शीशे में अपने चेहरे को देखने की कोशिश 
करने से वो सिर्फ बहार के दृश्यों से ही परिचित होगा
उसे न अपनी जानकारी मिल पाएगी 
न वो शीशे के महत्त्व को जान पायेगा 

शीशे के नीव को अगर पारा से भर दिया जाए तो ही 
कोई अपने चेहरे को देख पाता है 

उसी तरह कोई इंसान गुरु की तलाश में भटकता है 
तो उसे शीशे और दर्पण में भेद करना चाहिए
सच्चा गुरु का ह्रदय पारा  जैसा होता है ,जब शिष्य उनका अनुशरण करता है 
तब वो अपना सत्य स्वरुप का दर्शन पा लेता है ,क्योंकि गुरु उसके दिल के  तरंगो को परावर्तित कर देते हैं 
अपने उच्च ज्ञान से .....
शिष्य शुरू में एक शीशे की तरह होता है ...
वो गुरु द्वारा किये गए अच्छे ज्ञान के परावर्तन को ग्रहण करते जाता है और ज्ञान रुपी  पारा उसके ह्रदय को परिपक्व और विनीत बनाते जाता है ..
और गुरु उसके अज्ञान को भी परिवर्तित करते हैं 
जिसे वो अपने शीशे रुपी ह्रदय से बहार निकलते जाता है..
धीरे धीरे वो पूर्णतया को प्राप्त होता है.....


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