एक था निशांत | हर बात में आ जाता था अपने ज़ज्बातों को लेकर पर अल्हड था थोडा
उसे विजय ने बहुत समझाया ,तू ज़ज्बात में मत बह | ऐसा नहीं होता है रे !
तू धीर बन |यहाँ तेरे ज़ज्बातों से उथल पुथल मच जायेगी | धीर बन और बदले में
आने वाले ज़ज्बातों को समझा कर रे !| विजय से उसने बहुत सिखा | धीर तो वो रखने लगा
फिर भी ज़ज्बात में बहने लगा
बहुत दूर जाकर जब उसे हार मिली | ज़ज्बातों को न समझने की सजा मिली |
तो उसे बहुत याद आई अपने दोस्त विजय की | आज विजय एक प्रकाशक है |
और निशांत आया है उससे सहारा मांगने | उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था |
विजय से कुछ बोलने की हिम्मत उसे नहीं हो रही था | वो उसकी बातों को अनसुना कर
चला गया था एक दिन |हुआ यूँ था की निशांत अकेले उठ खड़ा हुआ बिना सोचे विचारे जब उसके और उसके साथियों पर झूठे आरोप लगे थे चोरी के |विजय ने उसे बस इतना कहा की हमेशा सच नहीं बोलना चाहिए | पर निशांत ज़ज्बात के मद में विवेक को भूल गया था | जब विजय ने उसे बोला की तुम अपने ज़ज्बातों को क्यों नहीं संभाल के रखते तो उसे इस बात की सारगर्भिता रास नहीं आई वो समझा की विजय उसका मजाक उड़ा रहा है |
पर विजय उसके उथल पुथल को समझ रहा था | उसने उसे बोला निशांत कैसे हो?
निशांत सकुचाते हुए बोला तुमने मुझे पहचान लिया |विजय ने बोला दोस्त था तू मेरा ,तेरे साथ मैंने कितनी महफिले बितायी थी | निशांत रोने लगा , तो उसको सहारा देते हुए विजय ने बोला -अरे हिम्मत रख यार ..अभी हार जाएगा |
निशांत सकुचाते हुए बोला तुमने मुझे पहचान लिया |विजय ने बोला दोस्त था तू मेरा ,तेरे साथ मैंने कितनी महफिले बितायी थी | निशांत रोने लगा , तो उसको सहारा देते हुए विजय ने बोला -अरे हिम्मत रख यार ..अभी हार जाएगा |
विजय ने बोला तू कवि बन सकता है |तुझमे ज़ज्बात हैं पर तू थोडा सा संयम रख |
अपने मन को थोडा एकाग्र कर ले | निशांत ने बोला कहाँ मैं कवि बन सकता हूँ |
मुझे तो शब्दों पर भी पकड़ नहीं है|
तब निशांत को एक कागज़ देते हुए विजय ने बोला | देख ये तेरे घर से आया है |
तुने कुछ पन्ने भरे थे |देख ले इसे | बहुत पुराने हो गए हैं पर तेरे ही हैं|
मैं तेरी लिखावट आज भी पहचान सकता हूँ | तुने तब कुछ शब्दों को लिख दिया था |
याद है न जब हम और तुम और सुजीत जाते थे चाय वाले के ढाबे पर तो तुने चाय मेरे शर्ट पर गिरा दी थी और फिर मुझसे जिद करने लगा था की मुझे ये शर्ट चाहिए मैंने वो शर्ट तुझे दे दिया
और तुने तब उसे धोकर मेरे जन्मदिन पर वापस किया था |
और साथ में एक कागज़ भी था जिसपरदोस्ती पर तुने ऐसे ही कोई कविता लिख दी थी
हम लोग खूब हँसे थे तुम्हारी इस मुर्खता पर पर बाद में बड़ा अच्छा लगा था |
तुम्हारे अन्दर के कवि को मैं पहचान गया था | मैंने वो कविता माँ जी को दे दी थी |
वो बहुत खुश हुई थी तब | आज तू वो कलम उठा और अपने घर के
सपने को पूरा कर निशांत
तू कर सकता है
विजय तेरे साथ है ..
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