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Thursday 28 April 2011

श्री गणेश के उदगम की ये एक पावन कथा है ....

द्वारपाल बन माता की
आज्ञा को पूरा करने
डट गया वो निडर 
अकेला 

शिव जी हो गए क्रोधित
जब उनका मार्ग हुआ अवरुद्ध 

क्रोधित हो गए  पुत्र से वो 
हुआ देवताओं से भयंकर युद्ध 

शिव थे परमपिता जग के
पर उसके संग माँ की शक्ति थी 

उसे हरा न पाए कोई 
कोई भी न युक्ति थी 

पुत्र ने बोला परमपिता 
आप प्राण भले मेरा हरना 

माँ की आज्ञ को तोड़ने पर
विवश  न  मुझको करना 

देवगन ने युद्ध किया 
पर हुए वो   पराजित 

पार्वती के पुत्र का वो 
 न कर सके वो अहित 

किया त्रिशूल प्रहार पुत्र पर 
जब  डिगे न  वो द्वार  से 

पिता और माँ  के वचनों का 
किया मान निज संहार से 

माता ने जब सुना तो 
डगमग हो गयी सृष्टि  

प्राण ले गए मेरे टुकरे की 
क्या ये है तिरुपति की वृत्ति 

दिया उन्होंने चेतावनी 
मेरे पुत्र को वापस लाओ 

निर्दोष को मार दिया सबने 
अब शक्ति अपनी दिखाओ 

ब्रह्मा जी ने बोला 
ऐसा हो सकता है 

ममता जिस माँ में नहीं है 
उसके पुत्र की आवश्यकता है 

ढूंढ़ लिया शिवगण ने सब और
मिली न कोई ऐसी माता 

हार के लौट रहे थे तो 
एक हस्ती में दिखी कुमाता 

पर देखो तो उस हस्ती ने भी
पुत्र का बलिदान किया 

और उसके पुत्र ने उस माँ को 
भी सम्मान दिया 

माता कोई कुमाता न होती है 
ऐसी ये कविता है 

श्री गणेश के उदगम की 
ये एक पावन कथा है 









Tuesday 26 April 2011

वो बूढ़ा और बिन व्याही बेटी ....

वो बूढ़ा और बिन व्याही बेटी ....

टर टर करते हो हे मेढक 
क्या वर्षा आने वाली है 


दीवारों पर चिंटी की कतारे
क्या वर्षा आने वाली है 


दुबक गए हो बिल में मूषकों 
क्या वर्षा आने वाली है 


सूरज बादल में ठनी हुई है 
क्या वर्षा आने वाली है 


बूढी नज़रों से वो बूढ़ा 
अपने प्यारे  खेत को देखता है 


कैसे कटेगा ये साल 
अपनी घरवाली से वो पूछता है 

अभियंता बेटा है उसका 
दूर प्रदेश में जा वो  बसा 


डाकिया आया है चिट्ठी लेकर 
फिर आस में  वो बूढ़ा हंसा  


पढ़ा डाकिया ख़त को 
उसमे बकाये का ज़िक्र था  


बूढ़ा बूढी के आँखें  नम थी 
उनके अरमानो का ये हश्र था  


न जाने वो कितने सालों से 
बेटे की आहट को वो तरस गए


बेटा तो आया नहीं
पर बादल आकर गरज गए  


डाकिये ने उस बूढ़े के 
कांपते हाथो से अखबार लिया 


मॉनसून की भविष्यवानिया हैं 
पढ़कर कुदरत को दोष दिया 


फिर से कीचड़ से वो राहें 
बेकार में भर जायेंगी 


ये मॉनसून मेरे पत्र-वितरण में  
बड़ी परेशानी लायेंगी 


बूढ़े को एक आस जगी 
ये भविष्यवाणी  सच  हो पाए 


हमारे सूखे खेत में 
फिर से हरियाली आ जाए 


भविष्यवाणी है मॉनसून की 
क्या वर्षा आने वाली है 


ये सुन  आई  बिन व्याही बेटी 
उसके मुख पर फिर से लाली है 

निशब्द हूँ तेरे लिए माँ

निशब्द हूँ तेरे लिए माँ !
धरती आकाश बादल क्या हैं 
माँ तुने ही तो मुझे बताया था 
नज़र न लग जाए मुझको 
काजल तुने ही मुझे लगाया था 

कविता लेख ग़ज़ल क्या है 
शब्द तुने मुझे सिखाया था 
धुप न लग जाए मुझको 
आँचल में तुने मुझे छुपाया था 

दोस्त गुरु भगवन क्या हैं 
माँ तुने मुझे समझाया था 
ठोकर न लग जाए मुझको 
चलना तुने मुझे सिखाया था 

निशब्द हूँ तेरे  लिए माँ 
बस कुछ शब्दों का अर्पण है 
तेरे संस्कारों का हे माँ 
मेरी कविता एक दर्पण है 

.

तू शक्ति है इस जग में इसे कोई झुठला न पायेगा


तू शक्ति है इस जग में इसे कोई झुठला न पायेगा

तेरे बिन मरना सिख लिया था 
तू अमृत लेकर क्यों आई 
इस  स्वप्नों के निश्चल जगत से 
तू क्यों आकर उसे जगाई 

मन कोमल था पर शब्द तो थे
जिससे शोले बरसते थे 
क्रांति ला सकते थे वो 
नवयुवको में साहस भरते थे 


मौन रहे पर फिर भी लेखक 
मन में बस जाता है 
प्रेम गीत भी तो रचकर 
वो एक रण में सर्वस्व लुटाता है


तू शक्ति है इस  जग  में 
इसे कोई झुठला न   पायेगा 
शब्दों में शक्ति है तुझसे 
हर कवी इसे दर्शायेगा 


प्रकृति भी जीवनदायनी है 
धरा भी है जननी 
हर रूप में उस शक्ति की ताक़त 
समझाएगी एक  कवि की लेखनी 

दुष्ट अगर है जीवन साथी

दुष्ट अगर है जीवन साथी ....



अधमरा है वो 
रणविजय कर के वो लौटा है 

निर्दोषों के रक्त से लथपत 
उसके कटार उसे धिक्कारते हैं 

है  सेना घबराई सी
ये फिर से हमें सताएगा 

हमको आड़ में लेकर 
निर्बलों को वो तरपायेगा 

दौर के  आई उसकी  जीवनसंगिनी 
उसके आँखों का  वो तारा  है 

किया जघन्य कृत्य भी 
तो भी वो  उसको प्यारा है 

पर वो नारी अपने शक्ति को 
क्यों न जान सकी 

कटार थामे  जीवनसाथी  को 
वो क्यों न संभाल सकी 

कटार नहीं है तो क्या
शक्ति है हर नारी में 

रावण न बन पाए कोई 
सीता है हर नारी में 

कूटनीति कर के 
वो सेना को वश में कर सकती थी 

निर्दोषों का  जनसंहार से 
वो रक्षा कर सकती थी 

मंदोदरी थी पतिव्रता 
पर अब चंडी सा बन जाओ 

दुष्ट अगर है जीवन साथी 
तो तुम भी काली बन जाओ 

समझो अपनी ताक़त नारी 
ये शब्द हैं तेरे ढाल अब  

बदल देंगे दुष्टों को भी 
ये शब्द हैं तम के काल अब

कागा और कोयल

कागा और कोयल



कागा है उन्मुक्त वो उड़ता 
कर्कश बोली रोज़ सुनाता है 
कोयल बोले मीठी बोली 
उसको ही पूजा जाता है 

पर अपने लालों का पोषण 
कोयल  क्यों नहीं कर पाता है 
बोझ समझकर अपने बच्चों को
                                                      वो निर्दयता से ठुकराता है 

कागा है कर्कश तो भी 
उसके लालो को अपनाता है 
सड़ी- गली भोजन को भी 
बड़े चाव से खा जाता है 

आलस नहीं करता कागा 
बस  वो शोर मचाता है 
कोयल के मीठी बोलों से 
क्यों मानव ठगा सा जाता है 

बोली से न पहचानो तुम 
गुण से ही परखा जाता है 
कुदरत कई तरह से हरदम 
ए मानव ! तुझे सिखाता है 

कुर्बान होंगे हमारे ये शब्द माँ

कुर्बान होंगे हमारे ये शब्द माँ !
तू हमारा स्वाभिमान है 
तू कुर्बानी नहीं देगी माँ 
होगी तेरी जीत सदा 
कुर्बान होंगे हमारे ये  शब्द 

कुछ मोती बन जायेंगे 
तेरे आशीर्वाद से 
बुलायेंगे कुछ लुटेरों को 
लोभ का उनका करेंगे वध 

कुछ बनेंगे कटार  
होंगे कृष्ण के शंखनाद से 
नवयुवकों में रवानी लायेंगे 
जो गद्धारों को करेंगे पस्त 

शब्दों  की गूँज जब 
दूर पर्वत पर सुनाई जायेगी 
शत्रु भागे जायेंगे माँ 
तू बस ढाढस रख 

जब जीतेंगे हर युद्ध 
कुछ भक्ति में रंग जायेंगे 
तेरे चरणों की पूजा होगी 
ये शब्द व्यर्थ न जायेंगे 

भेड़ियों को भी हे माँ 
हम मिलकर थर्रा देंगे 
शब्दों के बानों से उनको 
भीमसेन की याद दिला देंगे 

लोमड़ी सी हसरत वालों को 
ये  गौ बना देंगे 
उनके मन को रौंद कर 
भारत को स्वर्ग बना देंगे 

भेड़चाल में चलने वालों को 
ये सिंह बना देंगे 
इस देश के हर बच्चे बच्चे को 
आत्मनिर्भर ये बना  देंगे