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Tuesday 26 April 2011

कागा और कोयल

कागा और कोयल



कागा है उन्मुक्त वो उड़ता 
कर्कश बोली रोज़ सुनाता है 
कोयल बोले मीठी बोली 
उसको ही पूजा जाता है 

पर अपने लालों का पोषण 
कोयल  क्यों नहीं कर पाता है 
बोझ समझकर अपने बच्चों को
                                                      वो निर्दयता से ठुकराता है 

कागा है कर्कश तो भी 
उसके लालो को अपनाता है 
सड़ी- गली भोजन को भी 
बड़े चाव से खा जाता है 

आलस नहीं करता कागा 
बस  वो शोर मचाता है 
कोयल के मीठी बोलों से 
क्यों मानव ठगा सा जाता है 

बोली से न पहचानो तुम 
गुण से ही परखा जाता है 
कुदरत कई तरह से हरदम 
ए मानव ! तुझे सिखाता है 

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