द्वारपाल बन माता की
आज्ञा को पूरा करने
डट गया वो निडर
अकेला
शिव जी हो गए क्रोधित
जब उनका मार्ग हुआ अवरुद्ध
क्रोधित हो गए पुत्र से वो
हुआ देवताओं से भयंकर युद्ध
शिव थे परमपिता जग के
पर उसके संग माँ की शक्ति थी
उसे हरा न पाए कोई
कोई भी न युक्ति थी
पुत्र ने बोला परमपिता
आप प्राण भले मेरा हरना
माँ की आज्ञ को तोड़ने पर
विवश न मुझको करना
देवगन ने युद्ध किया
पर हुए वो पराजित
पार्वती के पुत्र का वो
न कर सके वो अहित
किया त्रिशूल प्रहार पुत्र पर
जब डिगे न वो द्वार से
पिता और माँ के वचनों का
किया मान निज संहार से
माता ने जब सुना तो
डगमग हो गयी सृष्टि
प्राण ले गए मेरे टुकरे की
क्या ये है तिरुपति की वृत्ति
दिया उन्होंने चेतावनी
मेरे पुत्र को वापस लाओ
निर्दोष को मार दिया सबने
अब शक्ति अपनी दिखाओ
ब्रह्मा जी ने बोला
ऐसा हो सकता है
ममता जिस माँ में नहीं है
उसके पुत्र की आवश्यकता है
ढूंढ़ लिया शिवगण ने सब और
मिली न कोई ऐसी माता
हार के लौट रहे थे तो
एक हस्ती में दिखी कुमाता
पर देखो तो उस हस्ती ने भी
पुत्र का बलिदान किया
और उसके पुत्र ने उस माँ को
भी सम्मान दिया
माता कोई कुमाता न होती है
ऐसी ये कविता है
श्री गणेश के उदगम की
ये एक पावन कथा है