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Thursday 28 April 2011

श्री गणेश के उदगम की ये एक पावन कथा है ....

द्वारपाल बन माता की
आज्ञा को पूरा करने
डट गया वो निडर 
अकेला 

शिव जी हो गए क्रोधित
जब उनका मार्ग हुआ अवरुद्ध 

क्रोधित हो गए  पुत्र से वो 
हुआ देवताओं से भयंकर युद्ध 

शिव थे परमपिता जग के
पर उसके संग माँ की शक्ति थी 

उसे हरा न पाए कोई 
कोई भी न युक्ति थी 

पुत्र ने बोला परमपिता 
आप प्राण भले मेरा हरना 

माँ की आज्ञ को तोड़ने पर
विवश  न  मुझको करना 

देवगन ने युद्ध किया 
पर हुए वो   पराजित 

पार्वती के पुत्र का वो 
 न कर सके वो अहित 

किया त्रिशूल प्रहार पुत्र पर 
जब  डिगे न  वो द्वार  से 

पिता और माँ  के वचनों का 
किया मान निज संहार से 

माता ने जब सुना तो 
डगमग हो गयी सृष्टि  

प्राण ले गए मेरे टुकरे की 
क्या ये है तिरुपति की वृत्ति 

दिया उन्होंने चेतावनी 
मेरे पुत्र को वापस लाओ 

निर्दोष को मार दिया सबने 
अब शक्ति अपनी दिखाओ 

ब्रह्मा जी ने बोला 
ऐसा हो सकता है 

ममता जिस माँ में नहीं है 
उसके पुत्र की आवश्यकता है 

ढूंढ़ लिया शिवगण ने सब और
मिली न कोई ऐसी माता 

हार के लौट रहे थे तो 
एक हस्ती में दिखी कुमाता 

पर देखो तो उस हस्ती ने भी
पुत्र का बलिदान किया 

और उसके पुत्र ने उस माँ को 
भी सम्मान दिया 

माता कोई कुमाता न होती है 
ऐसी ये कविता है 

श्री गणेश के उदगम की 
ये एक पावन कथा है 









Tuesday 26 April 2011

वो बूढ़ा और बिन व्याही बेटी ....

वो बूढ़ा और बिन व्याही बेटी ....

टर टर करते हो हे मेढक 
क्या वर्षा आने वाली है 


दीवारों पर चिंटी की कतारे
क्या वर्षा आने वाली है 


दुबक गए हो बिल में मूषकों 
क्या वर्षा आने वाली है 


सूरज बादल में ठनी हुई है 
क्या वर्षा आने वाली है 


बूढी नज़रों से वो बूढ़ा 
अपने प्यारे  खेत को देखता है 


कैसे कटेगा ये साल 
अपनी घरवाली से वो पूछता है 

अभियंता बेटा है उसका 
दूर प्रदेश में जा वो  बसा 


डाकिया आया है चिट्ठी लेकर 
फिर आस में  वो बूढ़ा हंसा  


पढ़ा डाकिया ख़त को 
उसमे बकाये का ज़िक्र था  


बूढ़ा बूढी के आँखें  नम थी 
उनके अरमानो का ये हश्र था  


न जाने वो कितने सालों से 
बेटे की आहट को वो तरस गए


बेटा तो आया नहीं
पर बादल आकर गरज गए  


डाकिये ने उस बूढ़े के 
कांपते हाथो से अखबार लिया 


मॉनसून की भविष्यवानिया हैं 
पढ़कर कुदरत को दोष दिया 


फिर से कीचड़ से वो राहें 
बेकार में भर जायेंगी 


ये मॉनसून मेरे पत्र-वितरण में  
बड़ी परेशानी लायेंगी 


बूढ़े को एक आस जगी 
ये भविष्यवाणी  सच  हो पाए 


हमारे सूखे खेत में 
फिर से हरियाली आ जाए 


भविष्यवाणी है मॉनसून की 
क्या वर्षा आने वाली है 


ये सुन  आई  बिन व्याही बेटी 
उसके मुख पर फिर से लाली है 

निशब्द हूँ तेरे लिए माँ

निशब्द हूँ तेरे लिए माँ !
धरती आकाश बादल क्या हैं 
माँ तुने ही तो मुझे बताया था 
नज़र न लग जाए मुझको 
काजल तुने ही मुझे लगाया था 

कविता लेख ग़ज़ल क्या है 
शब्द तुने मुझे सिखाया था 
धुप न लग जाए मुझको 
आँचल में तुने मुझे छुपाया था 

दोस्त गुरु भगवन क्या हैं 
माँ तुने मुझे समझाया था 
ठोकर न लग जाए मुझको 
चलना तुने मुझे सिखाया था 

निशब्द हूँ तेरे  लिए माँ 
बस कुछ शब्दों का अर्पण है 
तेरे संस्कारों का हे माँ 
मेरी कविता एक दर्पण है 

.

तू शक्ति है इस जग में इसे कोई झुठला न पायेगा


तू शक्ति है इस जग में इसे कोई झुठला न पायेगा

तेरे बिन मरना सिख लिया था 
तू अमृत लेकर क्यों आई 
इस  स्वप्नों के निश्चल जगत से 
तू क्यों आकर उसे जगाई 

मन कोमल था पर शब्द तो थे
जिससे शोले बरसते थे 
क्रांति ला सकते थे वो 
नवयुवको में साहस भरते थे 


मौन रहे पर फिर भी लेखक 
मन में बस जाता है 
प्रेम गीत भी तो रचकर 
वो एक रण में सर्वस्व लुटाता है


तू शक्ति है इस  जग  में 
इसे कोई झुठला न   पायेगा 
शब्दों में शक्ति है तुझसे 
हर कवी इसे दर्शायेगा 


प्रकृति भी जीवनदायनी है 
धरा भी है जननी 
हर रूप में उस शक्ति की ताक़त 
समझाएगी एक  कवि की लेखनी 

दुष्ट अगर है जीवन साथी

दुष्ट अगर है जीवन साथी ....



अधमरा है वो 
रणविजय कर के वो लौटा है 

निर्दोषों के रक्त से लथपत 
उसके कटार उसे धिक्कारते हैं 

है  सेना घबराई सी
ये फिर से हमें सताएगा 

हमको आड़ में लेकर 
निर्बलों को वो तरपायेगा 

दौर के  आई उसकी  जीवनसंगिनी 
उसके आँखों का  वो तारा  है 

किया जघन्य कृत्य भी 
तो भी वो  उसको प्यारा है 

पर वो नारी अपने शक्ति को 
क्यों न जान सकी 

कटार थामे  जीवनसाथी  को 
वो क्यों न संभाल सकी 

कटार नहीं है तो क्या
शक्ति है हर नारी में 

रावण न बन पाए कोई 
सीता है हर नारी में 

कूटनीति कर के 
वो सेना को वश में कर सकती थी 

निर्दोषों का  जनसंहार से 
वो रक्षा कर सकती थी 

मंदोदरी थी पतिव्रता 
पर अब चंडी सा बन जाओ 

दुष्ट अगर है जीवन साथी 
तो तुम भी काली बन जाओ 

समझो अपनी ताक़त नारी 
ये शब्द हैं तेरे ढाल अब  

बदल देंगे दुष्टों को भी 
ये शब्द हैं तम के काल अब

कागा और कोयल

कागा और कोयल



कागा है उन्मुक्त वो उड़ता 
कर्कश बोली रोज़ सुनाता है 
कोयल बोले मीठी बोली 
उसको ही पूजा जाता है 

पर अपने लालों का पोषण 
कोयल  क्यों नहीं कर पाता है 
बोझ समझकर अपने बच्चों को
                                                      वो निर्दयता से ठुकराता है 

कागा है कर्कश तो भी 
उसके लालो को अपनाता है 
सड़ी- गली भोजन को भी 
बड़े चाव से खा जाता है 

आलस नहीं करता कागा 
बस  वो शोर मचाता है 
कोयल के मीठी बोलों से 
क्यों मानव ठगा सा जाता है 

बोली से न पहचानो तुम 
गुण से ही परखा जाता है 
कुदरत कई तरह से हरदम 
ए मानव ! तुझे सिखाता है 

कुर्बान होंगे हमारे ये शब्द माँ

कुर्बान होंगे हमारे ये शब्द माँ !
तू हमारा स्वाभिमान है 
तू कुर्बानी नहीं देगी माँ 
होगी तेरी जीत सदा 
कुर्बान होंगे हमारे ये  शब्द 

कुछ मोती बन जायेंगे 
तेरे आशीर्वाद से 
बुलायेंगे कुछ लुटेरों को 
लोभ का उनका करेंगे वध 

कुछ बनेंगे कटार  
होंगे कृष्ण के शंखनाद से 
नवयुवकों में रवानी लायेंगे 
जो गद्धारों को करेंगे पस्त 

शब्दों  की गूँज जब 
दूर पर्वत पर सुनाई जायेगी 
शत्रु भागे जायेंगे माँ 
तू बस ढाढस रख 

जब जीतेंगे हर युद्ध 
कुछ भक्ति में रंग जायेंगे 
तेरे चरणों की पूजा होगी 
ये शब्द व्यर्थ न जायेंगे 

भेड़ियों को भी हे माँ 
हम मिलकर थर्रा देंगे 
शब्दों के बानों से उनको 
भीमसेन की याद दिला देंगे 

लोमड़ी सी हसरत वालों को 
ये  गौ बना देंगे 
उनके मन को रौंद कर 
भारत को स्वर्ग बना देंगे 

भेड़चाल में चलने वालों को 
ये सिंह बना देंगे 
इस देश के हर बच्चे बच्चे को 
आत्मनिर्भर ये बना  देंगे

ये बादल हमें सिखाते हैं

ये बादल हमें सिखाते हैं ...
दो बादल  हैं बौराए से 
टकरा टकराकर वो गरज़ते हैं 

कुछ  अमृत वो छुपाये थे 
जो बूंदे बन बरसते हैं 

बच्चे हैं कुछ  अलसाए से 
घर से वो अब   निकलते हैं 

अर्धनिद्रा में कुछ सोये  थे 
वो बादल  को धिक्कारते हैं 

धान को रोपे कुछ रोये थे 
वो   ईश -कृपा  स्वीकारते  है 

दो ध्रुव जब साथ  निभाते हैं 
तो जलने वाले जलते हैं 

विकास  रुपी वर्षा लाते हैं 
बस लड़ने से क्या होगा 

ये बादल हमें सिखाते हैं 
स्वार्थ करने  से क्या होगा 

वर्षा लाते हैं हम मिलकर 
सपने बुनने  से क्या होगा 

वर्षा लाते हैं हम मिलकर 
सपने बुनने  से क्या होगा 








..

तू बस याद रखना इसे भूलना नहीं

तू बस याद रखना इसे ....... भूलना नहीं


वो कहते हैं न की कल पीछा नहीं छोडती 
तो वो कल ही थी 
जिसे  निशांत   भूल कर आ गया था 
ज़माने के दस्तूर जो थे 
और उसके  घर के संस्कार 

किसी ने याद दिला दिया 
और फिर वो आज बन गयी 
वो जीने लगा 
और मरने लगा उसका वजूद 
या फिर बदलने लगा 
उस ईश की कृपा से 


जीने लगा वो 
हर पन्ने  में एक रंग भरने लगा 
मन की सुनने लगा 
और सबके मन को अपना सा 
समझ भूल गया आने वाले कल को 
उस ईश को उसके बल को 


पर लोगों ने अपने अनुभव सुनाये 
वो तो अपने मन की सुना 
और क्या था जो उसका था 
उसने उसे माना  ही था अप्राप्य 
पर वो प्राप्त हुई 
एक शक्ति जो उसे पहचान दिलाती रही 
कभी धुप में कभी छाओं में 
आज उस शक्ति को ढूंढ़ता है 
वो कहती है तू भूल गया था कुछ
जा उसे ढूंढ 
जा माँ के पास बैठ 
वो तुझे अपना लेगी 

तू हारा हुआ है 
तो भी तेरे सपनो में एक 
शक्ति को वो डाल देगी 
और फिर भी न ढूंढ पाया उस शक्ति को

तो उस दिन को याद कर जब 
तू इसी तरह बैठा था निस्तेज 
और वो एक प्रकाश के तरह आई थी 
तू बस याद रखना इसे 
भूलना नहीं 

मेरा चन्द्रमा तो विलक्षण है

मेरा चन्द्रमा तो विलक्षण है
वो  चकोर है 
तकता है रस्ता चाँद का 
जो ना आ पाएगी कभी मिलने 
फिर भी आवाज़ लगाता है 

बादल उसे समझाते हैं 
उसके रूठे मन को बहलाते हैं 
वो है परियों के शहर की 
तू व्यर्थ का शोर मचाता है 

उसने चाँद को बोल दिया
तेरे लिए दुआएं भेजी थी 
नज़र न लग जाए तुझको 
ये बादल जो तुझे बचाता है 

टिमटिमाते हैं तारे 
अमावस की रात में 
चकोर फिर भी उदास है 
वो चाँद नज़र नहीं आता है 

उसने तारों को बोल दिया 
तू आभूषण मात्र है आकाश का   
मेरा  चन्द्रमा तो विलक्षण है 
जो जग को शीतलता पहुंचाता   है 


..

आज तू वो कलम उठा

आज तू वो कलम उठा ......

एक था निशांत | हर बात में आ जाता था अपने ज़ज्बातों को लेकर पर अल्हड था थोडा 
उसे विजय ने बहुत समझाया ,तू ज़ज्बात में मत बह | ऐसा नहीं होता है रे !
तू धीर बन |यहाँ तेरे ज़ज्बातों से उथल पुथल मच जायेगी | धीर बन और बदले में
आने वाले ज़ज्बातों को समझा कर रे !| विजय से उसने बहुत सिखा | धीर तो वो रखने लगा
फिर भी ज़ज्बात में बहने लगा 
बहुत दूर जाकर जब उसे हार मिली |  ज़ज्बातों को न समझने की सजा मिली |
तो उसे बहुत याद आई अपने दोस्त विजय की | आज विजय एक प्रकाशक है |
और निशांत आया है उससे सहारा मांगने |  उसे अपनी गलती पर  पछतावा हो रहा था |


विजय  से  कुछ  बोलने  की   हिम्मत  उसे  नहीं  हो  रही   था | वो उसकी बातों को अनसुना कर 
चला गया था एक दिन |हुआ यूँ था की निशांत अकेले उठ खड़ा हुआ बिना सोचे विचारे जब उसके और उसके साथियों पर झूठे आरोप लगे थे चोरी के |विजय ने उसे  बस इतना कहा  की हमेशा सच नहीं बोलना चाहिए  | पर निशांत ज़ज्बात के मद में विवेक को भूल गया था | जब विजय ने उसे बोला की तुम अपने ज़ज्बातों को क्यों नहीं संभाल के रखते तो उसे इस बात की सारगर्भिता रास नहीं आई वो समझा की विजय उसका मजाक उड़ा रहा है |   
पर विजय उसके उथल पुथल को समझ रहा था | उसने उसे बोला निशांत  कैसे हो?


निशांत  सकुचाते हुए बोला तुमने मुझे पहचान लिया |विजय ने बोला दोस्त था तू मेरा ,तेरे साथ मैंने कितनी महफिले बितायी थी | निशांत रोने लगा , तो उसको सहारा देते हुए विजय ने बोला -अरे हिम्मत रख यार ..अभी हार जाएगा |
विजय ने बोला तू कवि बन सकता है |तुझमे ज़ज्बात हैं पर तू थोडा सा संयम   रख |  
अपने मन को थोडा एकाग्र कर ले | निशांत ने बोला कहाँ मैं कवि बन सकता हूँ |
मुझे तो शब्दों पर भी पकड़ नहीं है| 

तब निशांत को एक कागज़ देते हुए विजय ने बोला | देख ये तेरे घर से आया है |
तुने कुछ पन्ने भरे थे |देख ले इसे | बहुत पुराने हो गए हैं पर तेरे ही हैं|
मैं तेरी लिखावट आज भी पहचान सकता हूँ |  तुने तब कुछ  शब्दों को लिख दिया था |
याद है न जब हम और तुम और सुजीत जाते थे चाय वाले के ढाबे पर तो तुने चाय मेरे शर्ट पर गिरा दी थी और फिर मुझसे जिद करने लगा था की मुझे ये शर्ट चाहिए मैंने वो शर्ट तुझे दे दिया 
और तुने तब उसे धोकर मेरे जन्मदिन पर वापस किया था |
और साथ में एक कागज़ भी था जिसपरदोस्ती पर तुने ऐसे ही कोई कविता लिख दी थी 
हम लोग खूब हँसे थे तुम्हारी इस मुर्खता पर पर बाद में बड़ा अच्छा लगा था |
तुम्हारे अन्दर के कवि को मैं पहचान गया था | मैंने वो कविता माँ जी को दे दी थी |
वो बहुत खुश हुई थी तब  | आज तू वो कलम उठा और अपने घर के 
सपने को पूरा कर निशांत 
तू कर सकता है 
विजय तेरे साथ है  ..

अब इंतज़ार नहीं करेगी माँ

अब इंतज़ार नहीं करेगी माँ

 एक कविता माँ के लिए 
अब इंतज़ार नहीं करेगी माँ 
...................................................................................
अब इंतज़ार नहीं करेगी माँ ..
सपनो से ही सही 
ये यथार्थ होगा 
चिराग जो जला है अन्यास
वो कल स्वयं ही चरितार्थ होगा 



जब मैं नहीं था तो सपने भी
उसने ही बनायीं थी 



सपनो के साथ आज हूँ चला 
शब्द के ढालों से हूँ ढला 
इस रण में जो कुदरत खेलेगी मुझसे 
अपने सपनो के कटार  और शब्दों के ढाल 
से उससे मुकाबला मैं कर लूँगा 
हार भी गया तो 
एक निशान  छोड़ चलूँगा कुछ पन्नो पर 
कुदरत मुस्कराएगी देख कर मेरी हार 
और मेरी माँ मुस्कराएगी देख कर मेरी जीत  

अब इंतज़ार नहीं करेगी माँ

वक़्त ने ललकारा है फिर कलम धरो ..

वक़्त ने ललकारा है फिर कलम धरो
एक सपना था 
आया  अन्यास 

वो प्रभु का प्रताप था 
उसने समझा यथार्थ  था 

पर वो  कल का उसके 
परमार्थ था 

भटका था कुछ दूर 
राह में अनजानी 
कुछ तस्वीर थी 

बेगानों की महफ़िल 
या दिलवालों की भीड़ थी 

जीवन पथ में
साक्षी बनाया उस स्वप्न 
के अंजानो को 

जीवनसाथी है कलम 
उस सत्य के प्रमाणों को  

भीड़ से एक आवाज़ मिली 
कुछ शब्द मिले ,एक आवाज़ मिली 

चला अकेला ही था  वो 
वो कलम का एक सिपाही था 

प्रेमचंद या हो दिनकर 
वो शब्द-क्रांति का एक प्रहरी था 

विपत्ति  आती है जब जब 
जीवन मद्धम हो जाता है 

कलमकार शब्दों से लड़ता 
हर युद्ध जीतता जाता है 

सोये जनमानस को भी 
एक राह वही दिखलाता है 

जागृति लाता है 
और युग बदल जाता है 


ओर्विन्दो ,दिनकर ,सुब्रमण्यम के 
शब्दों ने बिगुल विप्लव की  बजायी  थी 

बिस्मिल   ने भी शब्दों से ही 
वर्तानियों    की   नींद    उडाई    थी 

वक़्त ने ललकारा है फिर  कलम धरो   
 नौजवानों   भ्रटाचार    से जूझ   पड़ो   

कवि तारणहारा होता है

विषैले शब्द रक्त में दिन प्रतिदिन उनके धमनियों में बहते हैं


जगत के दावानल में 
सर्प सम विपत्ति से डसे   हुए 
कुछ मरे हुए ,कुछ डरे हुए 
ये मानवों के संतापो को हरते हैं  
विषैले शब्द रक्त में 
दिन प्रतिदिन 
उनके धमनियों में बहते हैं 

एक अमृत  कलश है  ये  विष 
व्याप्त  मन मंदिर में उनके रहता है 
करता है निस्तेज असत को 
जब मंथन वो मन का करते हैं 
नव जीवन देता है मानव को 
जब  सपने उसके क्षीण भिन्न   होते हैं 
यथार्थ के कटारों से 
वो घायल परे जब होते हैं 

सपेरा है काल्पनिक मन 
वो शब्दों  को वश में करता है 
मरे हुए मानव मन का 
संचार वो सपेरा करता है 
निर्बलों के संतप्त मन का 
वो विषैला रक्त ही सहारा होता है 
अमृत रचता है उस विष से 
कवि तारणहारा  होता है 



.

चलो थाम लो उस बूढ़े का हाथ

चलो थाम लो उस बूढ़े का हाथ
चलो थाम लो  उस बूढ़े का  हाथ 
जो बैठा है निराशा के अंधकूप में 
सब कुछ झोंक चूका है 
जीवन के शाम और धुप में 

बढ़ो ,झिझको नहीं वीर 
उसे नींद से जगाओ 
उसके बल का प्रतिरूप 
वो आइना  उसे दिखाओ

कि  वो अपने चेहरे को भी 
भूल गया है 
वो बूढ़ा नहीं है 
बूढी  सोच में
सब कुछ कबूल गया है 

सताया है अपनों ने 
अपना मुख मोड़ लिया है 
 नवयुवक भारत के जागो 
ज़ज्बातों ने उसको तोड़ दिया है 

सन सत्तावन में अंग्रेजों से 
लोहा लेता वो बूढ़ा था 
आज ज़ज्बातों से  है घायल
उस बूढ़े को तू राह दिखा 

उसे दिखाओ उसकी ताक़त 
और भरो  ज़ज्बात हिम्मत का  
समझाओ उसे ये भारत है 
यहाँ रिवाज़ है तेरे इज्ज़त का 

कुछ रिश्तों के टूटने से 
तू क्यूँ हारा जाता है 
भारतवासी तेरे बेटे हैं 
क्यूँ तू पछताता है 

माँ भारती तेरी माँ है 
शिव सा तुम धीर  धरो 
विचलित न हो ज़ज्बातों से 
तू अपना मान न खो

प्रकृति से प्रेम करो 
यदि कोई न प्रेम करे 
आवाज़ सुनो पंछियों की 
गर कोई न तुझसे बोले 

तेरे साथ है जब भारत 
तो तू क्यों हार गया है 
भूल गए जो रिश्ते तुझको 
तू खुद को क्यों मार गया 

लौटा दे न मेरे भगवन

लौटा दे न मेरे भगवन

बहुत दिनों के पश्चात भाग्य से
जा पहुंचा एक विद्यालय में

मन आनंदित और परफुल्लित था
जैसे जा पहुंचा मैं शिवालय में

स्मृत हो गए मुझे मेरे गुरुजन
और सुनहरे उनके प्रियवचन

मन में आयीं भूली बिसरी बातें
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें

याद आ गया वो आखिरी घंटा
वो घंटी का बजना टनटन

सुन कर हम फुले ना समाते थे
हंसी ख़ुशी घर जाते थे

माँ ने रोटी सब्जी बनाई
उसे बारे चाव से खाते थे

याद आ गए मुझे माँ की लोरी
याद आ गया माँ का आँगन

गर मुझे मिल जाये भगवन
मैं करूँगा उनसे ये अर्चन

लौटा दें मुझे मेरा बचपन
लौटा दें बे प्यारे मित्र जन

उन खट्टी मीठी यादों का दाता !
कर दे जीवन में नव सृजन

बहुत  याद आते हैं गुरुजन
बहुत  याद आता है बचपन


लौटा दे न मेरे भगवन
ये है मेरा नम्र निवेदन

ये है मेरा नम्र निवेदन

ग्रीष्म ऋतू को नमन

ग्रीष्म ऋतू को नमन

ग्रीष्म ऋतू को नमन 
..................................

ग्रीष्म ऋतू का
हो गया है आगमन
मंज़र लग गए है 
अब आम के वृक्षों पर
आकृष्ट करते है 
सबको झूम झूम झूम के 
सब दे रहे
इस प्राकृतिक सौन्दर्य को
अपना नमन 
अपना नमन

पक्षी भौरें उड़ रहे है
मस्ती में
ये स्वंतंत्र उड़ान है  
उस ईश की है  ये कृपा  
दे रहे हैं  वो दस्तक
अपने सुरीले बोल से 
वृक्षों पर
कर रहे हैं भ्रमण 
हैं भ्रमण 

सूर्य दिव्य्मान है 
और नदियाँ बह रही है
कल कल
चारो और छाई है
एक दिव्यता
आनंद ही आनंद चहू और है
कर रही है 
एक अलोकिक
संगीत का सृजन 
का सृजन 

ये धरा भी प्रस्सन है 
की वृक्ष से 
वे हैं भरे
ये आदित्य रूप
जग का
हर रहा 
सबके अगन
 सबके अगन

कोयल ने अब   
ह्रदय पर
डाला मोह पाश है
बन गयी मनमोहिनी 
कर रही है
माधुर्यता का
हर दिशा में गुंजन
गुंजन

स्वागत कर रहे हैं कोयल की
हो सभी आनद में
आशीष अपनी
कर रहे हैं
हर कूक 
पर अर्पण 
 अर्पण

वर्ष में
एक बार ही 
आता है ये पल मित्रगन
कर लो इससे आत्मसात 
खुद के अंतर्मन को
कर लो
इस दिव्यता को
तुम ग्रहण 
तुम ग्रहण

आज कर लो
इस ग्रीष्म ऋतू के
आगमन पर
अपने अंतर्मन से 
इस सौन्दर्य को
तुम नमन
तुम नमन